Lekhika Ranchi

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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःउन्मादिनी


अंगूठी की खोज सुभद्रा कुमारी चौहान

चैती पूर्णिमा ने संध्या होते-होते धरित्री को दूध से नहला दिया। वसंती हवा के मधुर स्पर्श से सारा संसार एक प्रकार के सुख की आत्म-विस्मृति में बेसुध-सा हो गया। आम की किसी डाल पर छिपी हुई मतवाली कोयल पंचम स्वर में कोई मादक रागिनी अलाप उठी । वृक्षों के झुरमुट के साथ चाँदनी के टुकड़े अठखेलियाँ करने लगे; परंतु मेरे जीवन में न सुख था और न शांति। इस समय भी, जबकि संसार के सभी प्राणी आनंदविभोर हो रहे थे, मैं कंपनी बाग में एक कोने में हरी-हरी दूब पर पड़ा हुआ अपने जीवन की विषमताओं पर विचार कर रहा था। पेड़ की पत्तियों से छन-छनकर नन्‍हें-नन्‍हें चाँदनी के टुकड़े जैसे मुझे बरबस छेड़-से रहे थे। मैंने आँखें बंद कर लीं; फिर भी मैं किसी प्रकार का शांति लाभ न कर सका। आज मैं बहुत दुखी था। वैसे बात थी तो बहुत छोटी; किंतु पके हुए घाव पर एक मामूली-से तिनके का छू जाना ही बहुत है। छोटी-सी बात पर ही मेरे हृदय में जैसी भीषण हलचल मची हुई थी, उसे मेरे सिवा कौन जान सकता था।

इसी समय, कुछ युवतियाँ; मेरे पास से निकलीं। उनके पैरों के लच्छे और स्‍्लीपरों की ध्वनि मैंने साफ-साफ सुनी। वे लोग आपस में हँसती, खिलखिलाती और बातें करती हुई चली जा रही थीं। ऐसा लगता था जैसे सांसारिक चिंताओं को इनके पास पहुँचने का साहस ही नहीं होता। परंतु मुझे उनसे क्या प्रयोजन? मैंने तो उनकी ओर आँख उठाकर देखा भी नहीं। देखकर करता भी क्या? व्यर्थ ही हृदय में एक प्रकार की टीस उठती। वेदना और बढ़ जाती। मेरे लिए तो कदाचित्‌ विधाता ने अपने ही हाथों एक निरक्षरा और बेढंगी प्रतिमा का निर्माण किया था जो इच्छा न होने पर भी, बरबस मेरे जीवन के साथ बाँध दी गई थी; जिसके सहवास से मेरा सुखी जीवन, मेरा आशावादी हृदय, कल्पना के पंखों द्वारा ऊँची-से-ऊँची उड़ान भरने वाला मेरा मन सभी दुःख तथा घोर निराशा से न जाने कितनी भीषण वेदना का अनुभव कर रहे थे।

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